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न मा॑ तम॒न्न श्र॑म॒न्नोत त॑न्द्र॒न्न वो॑चाम॒ मा सु॑नो॒तेति॒ सोम॑म्। यो मे॑ पृ॒णाद्यो दद॒द्यो नि॒बोधा॒द्यो मा॑ सु॒न्वन्त॒मुप॒ गोभि॒राय॑त्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na mā taman na śraman nota tandran na vocāma mā sunoteti somam | yo me pṛṇād yo dadad yo nibodhād yo mā sunvantam upa gobhir āyat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। मा॒। त॒म॒त्। न। श्र॒म॒त्। न। उ॒त। त॒न्द्र॒त्। न। वो॒चा॒म॒। मा। सु॒नो॒त॒। इति॑। सोम॑म्। यः। मे॒। पृ॒णात्। यः। दद॑त्। यः। नि॒ऽबोधा॑त्। यः। मा॒। सु॒न्वन्त॑म्। उप॑। गोभिः॑। आ। अय॑त्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:30» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो! (यः) जो (मे) मुझे (पृणात्) तृप्त करे (यः) जो मुझको (ददत्) सुख देवे (यः) जो मुझको (निबोधात्) निश्चित बोध करावे (यः) जो (गोभिः) इन्द्रियों से (सुन्वन्तम्) यज्ञ करते हुए (मा) मुझको (उप,आ,अयत्) अच्छे प्रकार समीप प्राप्त होवे वह मुझको सेवने योग्य है जो (मा) मुझको (न) नहीं (तमत्) चाहता (न) नहीं (श्रमत्) श्रम करता (उन) और (न) नहीं (तन्द्रत्) मोह करता, हम लोग जिसको (इति) ऐसा (न) नहीं (वोचाम) कहें उस (सोमम्) ओषधि रस को तुम लोग (मा) मत (सुनोत) खींचो ॥७॥
भावार्थभाषाः - जो राजपुरुष प्रजा में किसी को क्लेशित नहीं करते, विरुद्ध कर्म का आचरण नहीं करते, सबको सुखी करते, उपदेश से बोध कराते, वे सुख के देने से नित्य तृप्त करने योग्य हैं ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यो मे पृणाद्यो मा ददद्यो मा निबोधाद्यो गोभिः सुन्वन्तं मोपायत्स मया सेवनीयः। यो मा न तमन्न श्रमन्नोत तन्द्रद्वयं यमिति न वोचाम तं सोमं यूयं मा सुनोत ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (न) निषेधे (मा) माम् (तमत्) अभिकाङ्क्षेत (न) (श्रमत्) श्राम्याच्छ्रमं प्रापयेत्। अत्र द्वाभ्यां विकरणव्यत्ययेन शप् (न) (उत) अपि (तन्द्रत्) मुह्येत् (न) (वोचाम) वदेम। अत्राडभावः (मा) निषेधे (सुनोत) अभिषवं कुरुत (इति) (सोमम्) ओषधिरसम् (यः) (मे) मह्यम् (पृणात्) तर्पयेत् (यः) (ददत्) सुखं दद्यात् (यः) (निबोधात्) निश्चितं बोधयेत् (यः) (मा) माम् (सुन्वन्तम्) यज्ञं कुर्वन्तम् (उप) (गोभिः) इन्द्रियैः सह वर्त्तमानः (आ) समन्तात् (अयत्) प्राप्नुयात् ॥७॥
भावार्थभाषाः - ये प्रजायां कञ्चिन्न क्लेशयन्ति विरुद्धं कर्म नाऽऽचरन्ति सर्वान् सुखयन्त्युपदेशे बोधयन्ति ते सुखदानेन नित्यं तर्पणीयाः ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे राजपुरुष प्रजेला त्रास देत नाहीत, विरुद्ध कर्माचे आचरण करीत नाहीत, सर्वांना सुखी करतात, उपदेश करून बोध करवितात त्यांना सुखाने तृप्त करावे. ॥ ७ ॥